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बेवश मजबूर किसान और उसकी खेती पर मंडराते संकट पर विशेष आलेख

बेवश मजबूर किसान और उसकी खेती पर मंडराते संकट पर विशेष आलेख

संवाददाता विजय कुमार शर्मा की कलम से

      इस देश में किसान को भगवान कहा जाता है और फिर भी उसे दीनहीन दया का पात्र माना जाता है। हम उन किसानों की बात करते हैं जो छोटे एवं मध्यम वर्ग से जुड़े होते हैं और सिर्फ अनाज सब्जी दाल की मिलवा खेती करते हैं। खेती को एक जुँआ माना गया है जो भगवान के सहारे पैदा होकर किसान के घर पहुंचती है। कभी कभी लागत आ जाती कभी कभी पूंजी भी चली जाती है और किसान खेती होने के बावजूद भिखमंगे की श्रेणी में आ जाता है। खेती के सहारे पशु पक्षी जीव जंतु तक जिन्दा रहते हैं और किसान की कमाई के बल पर वह सब भी अपना पेट भरते हैं। किसान की पहचान पशुओं की जाती है और जल्दी ऐसा किसान नहीं मिलेगा जिसके पास एक भी पशु न हो क्योंकि पशु गृहस्थी का मुख्य आधार माना जाता है। कहावत भी है कि-" या धन बाढै नदी के काछा या धन बाढ़ै गऊ के बाछा"। रबी की खेती किसान के लिए सबसे अधिक परेशानी में डालती है क्योंकि इसकी पत्तियां कड़ी नहीं बल्कि मुलायम होती हैं।यही कारण कि जंगली और आवारा पशु इसे बड़े चाव से देशी घी पड़े खाने की तरह खाते हैं। इधर कुछ वर्षों से खेती करना बहुत मुश्किल हो गया है और किसान जंगली और आवारा पशुओं से तंग आ गया है।अगर यहीं हाल रहा तो किसान खेती करना बंद कर देगा और उसने इस दिशा में खेती बेचना शुरू भी कर दिया है।लोग खेती छोड़कर भागने लगे नौकरी रोजगार को महत्व देने लगे हैं जबकि खेती सर्वोत्तम माना गया है और कहा भी गया है कि-" उत्तम खेती मध्यम बान निषद चाकरी भीख समान"। इधर अबतक नीलगाय किसानों के लिए दुश्मन बनी थी लेकिन अब उसके बाप आवारा गोवंशीय बछड़े सांड आ गये हैं जो खेती किसानी के ही नही बल्कि जिंदगी के भी महा दुश्मन बन गये हैं।इस कड़ाके की सर्दी में जबकि घर से बाहर निकलना दुश्वार है ऐसे में रात दिन खेत में बैठकर गेहूँ सरसों की फसल की रखवाली कर पाना संभव नहीं है। इधर चाहे धान उरद आदि की फसल हो चाहे हो चाहे गेहूं चना मटर सरसों आदि की हो तैयारी करके घर लाना आसान नहीं रह गया है। जबसे सरकार ने पशुपालन को बढ़ावा देने के लिये डेरी योजना कर दी है तबसे गोशालाओं व भैंसशालाओकी बाढ़ आ गयी है।सरकारी अनुदान से या व्यक्तिगत चलने वाली गोपालन और दूधारू पशुपालन का योजनाओं प्रतिफल है कि दूध की क्रांति आ गई है और कभी कभी पराग जैसी दुग्ध व्यवसायी संस्था कभी कभी ओवरफ्लो होकर दूध खरीदने से हाथ खड़ा कर देना पड़ रहा है। आवारा गोवंशीय पशु अधिकांश देशी नस्ल के नहीं हैं बल्कि अधिकांश उच्च नस्ल के हैं जो इस बात के प्रतीक हैं कि इनमें से अधिकांश गोपालन योजना से जुड़ी डेरियों की गायों के बछड़े होते हैं।इनमें बीस फीसदी गाँव के भी बछड़े होते हैं जिन्हें लोग गाय के दूध देने तक तो रखते हैं और दूध देना बंद करते ही रात के अंधेरे में छोड़.देते हैं।एक समय था जबकि लोग शुभ कार्य के रूप में संवर्धन की दृष्टिगत बछडे और भैसा  की पूजा करके समाजहित में छोड़ते थे। आज कुछ पशुपालक पशुपालन के नाम पर कलंक बने हुये हैं।अधिकांश गोशालाओं को अगर देखा जाय उसमें बछड़े जल्दी नहीं मिलेंगे। आखिर क्या इनकी गायें बछड़ा नही पैदा करती हैं? अगर बछड़ा बछिया दोनों पैदा करते हैं तो इनके बछड़े कहाँ चले जाते हैं? इस समय यह बछड़े गाँव शहर कस्बा चौराहा गली मुहल्ले हर जगह जीना हराम किये हैं।खेत में चरने से रोको तब हमला और रास्ते में सामने आ जाओं तब जानलेवा हमला हो रहा था।यह न गाय देखते हैं न भैस जिसे पाते उसी को तंग करते हैं और विरोध करने पर सिंघ झुकाकर हमला कर देते हैं। गाँवों में पशुओं के लिए सुरक्षित भूमि पर इनका आश्रय बनाकर समस्या के निदान की दिशा में कल्पना करने जैसा है।सरकार ने इधर समस्या समाधान के लिये ऐसा फार्मूला तैयार किया है जिससे बछडों का प्रजनन ही नही होगा लेकिन जो पैदा हो गये वह तो समस्या बने रहेगें। कुल मिलाकर किसानों के लिये यह आवारा पशु एक विकट समस्या बने हुये हैं। किसान रात में घर की रखवाली इस जाड़े में करे कि खेत की करें? कुछ समझ में नही आ रहा है। किसान ही एक ऐसा होता है जो कि सबका हमला झेलने के बाद भी -" पुनि पुनि करौ तौ उतरौ पार " वाले सिद्धांत पर जिंदा रहता है।इस समय किसान की खेती खतरे में पड़ गयी है और भविष्य अंधकार मय होता जा रहा है।

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