
श्रमिक वर्ग का सर्वहारा समीकरण
मंगलवार, 1 मई 2018
बात लगभग तीन साल पहले की है। न्यूयॉर्क में अमेरिका के लेफ्ट फोरम यानी वाम मंच ने तीन दिन का एक सम्मेलन किया। इसमें दुनिया भर के कई कार्यकर्ता जमा हुए। तमाम विश्वविद्यालयों के कई नामी-गिरामी प्रोफेसर वहां आए। अपनी सोच से दुनिया की एकमात्र वास्तविक व्याख्या का दावा करने वाले ‘फ्री थिंकर’ भी वहां भारी संख्या में थे। गायक, कलाकार, रंगमंच के निर्देशक, अभिनेता, कुल मिलाकर बौद्धिक जगत की काफी अच्छी भीड़ वहां जुटी थी। इसी सम्मेलन की रिपोर्ट लिखते हुए एक पत्रकार ने चौंककर पूछा था कि सर्वहारा कहां है? पूरे सम्मेलन में वे मजदूर या औद्योगिक मजदूर कहीं नहीं थे, जिन्हें क्रांति का हरावल दस्ता मानते हुए वामपंथ ने अपना ककहरा शुरू किया था। और तो और, अमेरिका की बड़ी ट्रेड यूनियनों का नेतृत्व इस समागम में हाजिरी लगाने तक नहीं पहुंचा था।
यह हैरत की बात इसलिए है कि कभी वामपंथ का अर्थ ही होता था श्रमिक आंदोलन, पर आज का श्रमिक आंदोलन इससे बहुत दूर जा चुका है। अगर हम भारत में ही देखें, तो हमारे यहां सबसे बड़ी तादाद में मजदूर जिस संगठन से जुड़े हैं, वह है भारतीय मजदूर संघ। संघ परिवार से जुड़े इस संगठन को परंपरागत परिभाषा के हिसाब से वामपंथी नहीं, दक्षिणपंथी कहा जाएगा। लेकिन मजदूरों की जिंदगी पर इसका क्या असर पड़ता है कि उनकी यूनियन का राजनीतिक धर्म क्या है? उन्हें तो ऐसा संगठन चाहिए,जो वक्त-जरूरत उन्हें बोनस, वेतन-वृद्धि और छुट्टियां वगैरह दिलवा सके। श्रमिकों की इसी सोच के कारण वह फलसफा पूरी दुनिया में ही ढेर हो गया, जो तकरीबन आश्वस्त था कि मेहनतकश लोगों के संगठन दुनिया को पूरी तरह बदल देंगे।
समाजवादियों और साम्यवादियों ने अपनी इस उम्मीद के लिए प्रेरणा उस ‘पेरिस कम्यून’ से ली थी, जो नेपोलियन साम्राज्य के पतन के बाद बना था। क्रांतिकारी मजदूरों या उनके नेताओं की अगुवाई वाली इस व्यवस्था ने पूरे फ्रांस पर तीन महीने तक राज किया था। कार्ल माक्र्स तो इससे बांधी गई अपनी उम्मीद को उस हद तक ले गए, जहां सदियों से समाज में होता आया श्रम का महिमा मंडन श्रमिकों की संगठित ताकत या श्रमिक आंदोलन के महिमा मंडन में बदल गया। माक्र्स का कहना था कि पूंजीपतियों और मजदूरों का वर्ग-संघर्ष आखिर में चरम पर पहुंचेगा, जहां श्रमिक वर्ग उत्पादन के साधनों पर कब्जा करके ‘सर्वहारा की तानाशाही’ स्थापित कर देंगे। यही उस क्रांति की अवधारणा थी, जिसका इंतजार कई लोगों ने आधी सदी से भी ज्यादा समय तक किया। माक्र्स समेत पूरे साम्यवादी आंदोलन पर इस जुमले का ऐसा असर हुआ कि किसी ने किसी और रास्ते के बारे में सोचा भी नहीं। यह भी कहा जाता है कि माक्र्स अगर ‘सर्वहारा की तानाशाही’ की बजाय ‘सर्वहारा के लोकतंत्र’ की बात करते, तो शायद तस्वीर कुछ और बनती।
यह भी सच है कि उस दौर में लोकतंत्र न ही एक व्यवस्था के रूप में, न ही एक उम्मीद के रूप में और न ही एक शासकीय ताने-बाने के रूप में उस तरह स्थापित था, जैसे कि आज दुनिया के बहुत से हिस्सों में है। और जहां नहीं है, वहां बहुत से लोगों के लिए अभी भी यह एक हसरत है। उस युग में लोकतंत्र अगर एक सपना था, तो मजदूरों की तानाशाही एक दूसरा सपना था। बीसवीं सदी की शुरुआत में जब लोकतंत्र अपने ढीले-ढाले स्वरूप, अपनी कछुवा चाल और आजादियों की अस्पष्ट अवधारणाओं के साथ दुनिया में फैल रहा था, तो सर्वहारा की तानाशाही वाले भी आगे बढ़े और दुनिया के कई हिस्सों पर कब्जा हासिल कर लिया। लेकिन सदी का अंत आते-आते सब कुछ बदल गया। लोकतंत्र का कछुवा तेज चौकड़ियां भरने वाले साम्यवादी खरगोश से बहुत आगे निकल चुका था।
साम्यवादी क्रांति कहीं भी उतना बड़ा बदलाव नहीं ला सकी, जितना कि लोकतंत्र की धीमी चाल ले आई थी। बात को अगर वापस श्रमिक आंदोलन पर लाएं, तो जिसे हमने पूंजीवाद कहकर दुनिया का सबसे बड़ा खलनायक घोषित कर दिया था, औद्योगिक क्रांति के अगले चरण ने उसकी सोच को भी बदल दिया। उसे यह बहुत जल्द समझ में आ गया कि मजदूरों से सीमित अवधि तक काम करवा कर और उन्हें गुजारे लायक ठीक-ठाक वेतन देकर भी अच्छा मुनाफा कमाया जा सकता है। बेशक, इसके पीछे कोई हृदय परिवर्तन नहीं था, यह सब उन श्रमिक संगठनों के संघर्ष का नतीजा भी था, जो अपने लोकतांत्रिक अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए इसके लिए लगातार दबाव बना रहे थे। दोनों व्यवस्थाओं में कितना अंतर था, यह सबसे अच्छी तरह तब देखने को मिला, जब जर्मनी की दीवार टूटी। तब जाकर पूर्वी जर्मनी सर्वहारा की तानाशाही में रहने वाले मजदूरों को पता पड़ा कि पश्चिम जर्मनी के पूंजीवादी व्यवस्था में रहने वाले उनके बिरादर उनके मुकाबले कितनी बेहतर स्थिति में हैं।
ठीक यहीं पर हम न्यूयॉर्क में हुए लेफ्ट फोरम के उस सम्मेलन को फिर एक बार याद करते हैं, जहां के मजमे को देख एक पत्रकार ने पूछा था- औद्योगिक मजदूर कहां हैं? ऐसा ही एक सवाल सात साल पहले उस आंदोलन में भी उठा था, जिसे दुनिया ने ‘ऑक्युपाई वॉल स्ट्रीट’ के नाम से जाना। 99 फीसदी आबादी का मुद्दा उठाने वाले उस आंदोलन में भी मजदूर कहीं नहीं थे। वहां सड़कों और पार्कों पर मजमा जुटाए लोगों में ज्यादातर या तो बेरोजगार थे, या वे छंटनीशुदा लोग, जिनकी नौकरी आर्थिक मंदी ने छीन ली थी। तब भी कहा गया था कि अर्थव्यवस्था असली सर्वहारा मजदूर नहीं, बल्कि यही बेरोजगार हैं।
अगर हम अपने आस-पास देखें, तो हमारे यहां जो मजदूर हैं, उनकी स्थिति कहीं भी बहुत अच्छी नहीं है। इसके बावजूद वे सर्वहारा भी नहीं हैं। उनके मुकाबले वे किसान ज्यादा सर्वहारा लगते हैं, जो आत्महत्या करने को मजबूर हैं या वे बेरोजगार, जिनकी एकमात्र हसरत मजदूरी मिलना है। या और आगे बढ़कर देखें, तो हमारे यहां दलित वर्ग है, जो सदियों से सर्वहारा है। उसके पास खोने के लिए अपनी बेड़ियों के सिवा कुछ नहीं और जीतने को पूरी दुनिया है। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि ‘सर्वहारा की तानाशाही’ की बात करने वालों को यह सर्वहारा कभी नहीं दिखता। उसे अभी भी लगता है कि बदलाव में ऐतिहासिक भूमिका तो अंत में औद्योगिक मजदूर ही निभाएगा।