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दुर्लभ मनुष्य योनि और उसकी विशेषताओं पर विशेष-

दुर्लभ मनुष्य योनि और उसकी विशेषताओं पर विशेष-

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दुर्लभ मनुष्य योनि और उसकी विशेषताओं पर विशेष-
🇮🇳सुप्रभात-सम्पादकीय🇮🇳
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भोलानाथ मिश्र
वरिष्ठ पत्रकार/समाजसेवी

साथियों,
      जीव योनियों में मनुष्य योनि को सर्वोत्तम सर्वश्रेष्ठ सर्व शक्तिमान एवं उद्धारक योनि माना जाता है क्योंकि जितने गुण व कलाएँ मनुष्य में होते हैं उतने गुण अन्य किसी योनि में विद्यमान नहीं होते हैं।  इसीलिए मनुष्य योनि जल्दी हर जीव को नहीं मिलती है और जब कई जन्मों और योनियों के पुण्य एकत्र होते हैं तब जाकर जीव को बड़ी मुश्किलों के बाद जाकर मनुष्य योनि प्राप्त हो पाती है। शायद इसीलिए कहा भी गया है कि-" बड़ी भाग्य मानुष तन पावा, सुर दुर्लभ सदग्रन्थन गावा"। मनुष्य योनि की रचना को ईश्वर की अनुपम उत्कृष्ट रचना माना गया है क्योंकि इसे ईश्वर ने एक साथ कई खूबियाँ प्रदान की है। मनुष्य की रचना ईश्वर ने अपने समान गुणों के आधार पर की है तथा उसमें अपने जैसी शक्तियां निहित की है इसीलिए मनुष्यों मानवता की डगर पर चलकर साधारण मानव से महामानव देवमानव और ईश्वर तुल्य बन सकता है तथा उल्टी अमानवीय राह पर चलकर वहीं मनुष्य नरपशु नरपिशाच एवं निशाचर बन सकता है।मनुष्य के कर्म ही उसे नर से नारायण और नर से नरपिशाच बनाकर ईश्वरीय दंड का भागीदार बना देते हैं। मनुष्य ईश्वर की तरह ज्ञान विवेक एवं शक्ति का भंडार होता है और जिस दिन वह उपलब्ध अपनी सारी शक्तियों का इस्तेमाल कर लेगा उस दिन वह ईश्वर के समान हो जायेगा। कहते हैं कि आजतक मनुष्य अपने पास मौजूद दिमाग का मात्र सोलह फीसदी ही इस्तेमाल कर सका है लेकिन इतने में ही चाँद की सैर कर आया है और तमाम ग्रहों तक पहुंचने के प्रयास कर महासागर की तलहटी तक पहुंच गया है। ईश्वर कहता है कि हमारे भक्त पांच तरह के होते हैं और पाँचों मुझे बहुत प्रिय हैं जिनमें मेरे नाम का जाप करने वाले जपी, हमारे लिये कठिन तपस्या करने वाले तपी, हमारे बारे में सम्पूर्ण जानकारी हासिल करने वाले ज्ञानी और हमारे बारे में प्राप्त ज्ञान में अपना ज्ञान लगाकर हमारे बारे में अनुसंधान करने वाले सुविज्ञानी आते हैं। यह चारों मुझे एक से बढ़कर एक प्रिय हैं लेकिन हमारा पांचवाँ भक्त इन चारों से भी अधिक प्रिय होता है जो न जपी होता है न तपी और न ज्ञानी विज्ञानी होता है वह निपट अनाड़ी होता है लेकिन हमारे प्रति उसकी सम्पूर्ण आस्था श्रद्धा एवं हमेशा हमारी मौजूदगी का अहसास कर अपनी दिनचर्या में लगा रहता है। मनुष्य और निशाचर में वहीं फर्क होता जो एक बिना शराब पीयें और शराबी मनुष्य में होता है। मनुष्य के आचरण, कार्यशैली, कार्यव्यवहार ही उसे देवता और दानव जैसी पहचान देते हैं और तुलसीदास ने रामायण में पहचान के संबंध में शिव पार्वती प्रंसग का उल्लेख करते हुए कहा कि-" मानै मात पिता नहि वचना, साधुन से करवायै सेवा, जाके इ आचरण भवानी ते जानौ निश्चर सम प्राणी"। मनुष्य जीवन की पहचानों की जानकारी करके मनुष्य स्वंय जान सकता है कि वह मनुष्य की किस कटेगरी में आता है क्योंकि आजकल हर व्यक्ति अपने को मनुष्य मानता है जबकि उसके कर्म एवं कार्यशैली नरपशु एवं नरपिशाच वाले होते हैं फिर भी नशे में चकनाचूर वह बड़े गर्व के साथ अपने को महामानव मान रहा है। मानव होने के कोई गुण परिलक्षित न होते हुए भी अपने को मानव देवमानव कहना मनुष्य की सबसे बड़ी भूल है जो जीव के भविष्य के लिए शुभ नहीं है क्योंकि मनुष्य को अपने कर्मों का सारा फल इसी जन्म में भुगतना पड़ता है।ईश्वरीय सदमार्ग पर चलकर नारी शक्ति का सम्मान करते हुये मनुष्य जीवन के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है।
          

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