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कार्यपालिका में बढ़ते राजनैतिक हस्तक्षेप और सीबीआई मामले में सुप्रीम कोर्ट के कडे़ रूख पर विशेष-

कार्यपालिका में बढ़ते राजनैतिक हस्तक्षेप और सीबीआई मामले में सुप्रीम कोर्ट के कडे़ रूख पर विशेष-

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कार्यपालिका में बढ़ते राजनैतिक हस्तक्षेप और सीबीआई मामले में सुप्रीम कोर्ट के कडे़ रूख पर विशेष-

🇮🇳-सम्पादकीय🇮🇳
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साथियों,
      लोकतांत्रिक व्यवस्था में इधर राजनीति लोकतंत्र को कमजोर करने लगी है और कार्यपालिका अपने कर्तव्यों से विमुख होकर राजनैतिक मोहरा बनती जा रही है। जो भी दल सत्ता में आता है वह कार्यपालिका हो चाहे न्यायपालिका हो हर जगह "अपनों" की तलाश करने लगता है और उन्हें अच्छे अच्छे पदों पर बिठाकर उनके माध्यम से राजनैतिक महत्वाकांक्षा की पूर्ति करता है। इधर कार्यपालिका से जुड़े तमाम अधिकारी कर्मचारियों राजनेताओं के पालतू की तरह उनके इशारे पर कार्य करने लगे हैं जबकि लोकसेवक राजनैतिक दल से नहीं बल्कि संविधानिक व्यवस्था से बंधा होता है।इस समय पिछले कई दिनों से कार्यपालिका से जुड़ी देश की सर्वोच्च जांच एजेंसी सीबीआई में मची घमासान आमलोगों में चर्चा का विषय बनी हुई है। अबतक सीबीआई पर सत्ता के इशारे पर काम करने के आरोप लगते थे लेकिन विपक्ष के इशारे पर काम करके सरकार को अस्थिर करने का मामला पहली बार सामने आया है। सीबीआई के दो आला अधिकारी पिछले कुछ दिनों से एक दूसरे पर रिश्वतखोरी का आरोप लगाकर सीबीआई के स्वर्णिम इतिहास को कलंकित करने लगे थे।दोनों आला अफसरों के खिलाफ अलग अलग एजेंसियां जांच कर रही हैं तथा एक जांच एजेंसी एक अफसर के मामले में एक अधीनस्थ अफसर को गिरफ्तार कर चुकी है और आरोपी अफसर को गिरफ्तारी से बचने के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाना पड़ चुका है। एक अफसर की पैरवी कांग्रेस कर रही है और इस मुद्दे को लेकर दो दिन पहले देश व्यापी धरना प्रदर्शन भी कर चुकी है।कांग्रेस का आरोप है कि एक आला अफसर राफेल मामले की जांच के लिये सबूत एकत्र कर रहा था इसलिए उसे हटा दिया गया है और सरकार द्वारा दोनों हटाये  सीबीआई अधिकारियों को नियमानुसार नहीं बल्कि रात के अंधेरे में हटाकर उनकी जगह दूसरे अधिकारी की तैनाती कर दी गयी है। दूसरी तरफ सरकार का कहना है कि हटाये गये अधिकारियों में आलोक वर्मा कांग्रेस के इशारे पर सरकार को अस्थिर करने की साजिश रच रहे थे। सीबीआई के दो सुप्रीम अधिकारियों राकेश अस्थाना एवं आलोक वर्मा के मध्य शुरु घमासान में सरकार विपक्ष के निशाने पर आ गई है और विपक्ष लगातार हमले कर रहा है। स्थिति की गंभीरता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सुप्रीम कोर्ट को सीधे इस मामले में हस्तक्षेप करना पड़ रहा है। सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यीय खंडपीठ ने मामले की संवेदनशीलता को देखते हुए आलोक वर्मा पर लगाये आरोपों की जांच करने वाली एजेंसी सीवीसी को न्यायाधीश की देखरेख में दस दिनों के अंदर जांच करके रिपोर्ट देने के आदेश देने पड़े हैं। इतना ही नहीं बल्कि सरकार द्वारा नियुक्त किए गये नये निदेशक को कोई भी नीतिगत निर्णय लेने पर रोक लगा दी गई है और रोजाना सुनवाई करके जल्दी से जल्दी इस बहुचर्चित महत्वपूर्ण मामले को निपटाने का भी फैसला किया है। सुप्रीम कोर्ट की सख्ती एवं अपने न्यायाधीश की निगरानी में जांच कराने के फैसले से लगता है कि जैसे न्यायपालिका को कार्यपालिका से विश्वास ही खत्म हो गया है और उसे इस मामले में राजनैतिक बू आने लगी है।यह इस देश का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि राजनीति कार्यपालिका मेंं प्रवेश कर लोकसेवा नियमों को प्रभावित करने लगी है शायद यहीं कारण था कि सीबीआई के निदेशक आलोक वर्मा द्वारा अपने समकक्ष निदेशक राकेश अस्थाना के विरुद्ध मुकदमा दर्ज करके उनके सहयोगीे एक डिप्टी एसपी को गिरफ्तार कर लिया गया और आलोक वर्मा के खिलाफ चल रही जांच में अबतक कुछ नहीं हुआ।अदालत द्वारा न्यायाधीश की देखरेख में निश्चित समय सीमा के अंदर जांच रिपोर्ट देने का आदेश निःसंदेह रूप से स्वागत एवं लोकतंत्र की गिरती साख के हित में है क्योंकि यह मामला देश की उच्च प्रतिष्ठित जाँच एजेंसी से जुड़ा है जिसे अनसुलझे मामलों को सुलझाकर दोषी तक पहुंचने में ख्यातिप्राप्त है। सीबीआई में राजनीति और भ्रष्टाचार दोनों का प्रवेश लोकतंत्र के भविष्य के लिए कतई उचित नहीं हैं और इसकी स्वतंत्रता एवं निष्पक्षता को बनाये रखना लोकतंत्र के हित में आवश्यक है।

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