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मैं खत्म होती एक सभ्यता का मूकदर्शक हूं

मैं खत्म होती एक सभ्यता का मूकदर्शक हूं

                     कवि नितेश पांडेय 
नदियों को नालों में बदलते देखा हाईवे के लिए सदियों पुराने पेड़ों को कटते देखा चट्टानी शहर के फेफड़ों को खांसते दम तोड़ते देखा डी.जे. की चीखों में धडकनों को शांत होते देखा, सिंदरी ऐसे सहर को धूल में उड़ते देखा है,
रंगबाजी के चलते मैने अपनी सहर को बंद होते देखा हैं,
मैदान में खेलते हुए बच्चों को अब मोबाइल मे डूबते देखा,
मरी मछलियों को सड़ते देखा गौरैया को तड़पते देखा प्यासे जानवरों को सड़क में कुचलते देखा जिंदा जमीन को केमिकल्स से जलते देखा अनाज को फॉस्फेट, सल्फास से उबलते देखा सूखती जड़ों को सबमर्सिबल से निचुड़ते देखा दवाओं के व्यापार में कोविड, एड्स, कैंसर फैलते देखा

मैंने किसान को व्यापारी के सामने हाथ जोड़ते देखा.. मैंने किसान को अस्पतालों से लेकर नेताओं के सामने भीख मांगते देखा.. मैंने उसको डेंगू से मरी औलाद का शव जलाते देखा । । । । मैने अपने ही सहर में ही बाहरी भीतरी होने वाले बर्ताव को देखा ।
मैने रोजगार और बेरजोरगार का अंतर देखा,  

मैंने अर्थव्यवस्था के निर्माता को फांसी चढ़ते देखा । ।

मैंने समाज को व्यापारी बनते देखा.... मैंने सरकार को लाभ जोड़ते देखा...

मैंने इंसान को मशीन में बदलते देखा....... एक युग को संवेदनाशून्य होते देखा.......

मैंने अपनी सभ्यता को मरते देखा ।।।।।।।।।

हा दैव

मैंने अपनी सभ्यता को मरते देखा ।

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