
मुआफ़ करना संजय भइया.. भोजपुरी अश्लील संगीत पर एक आलेख
अतुल कुमार गौतम, टीम प्रबंधक।
दरअसल मैं भी भोजपुरिया समाज का सरोकार हूँ,मालूम रहे कि छपरा जिला की मिट्टी हमारी जन्मस्थली है.!खैर...
बात दीगर है और मुद्दा अगर मोजपुरी की गिरती लोकप्रियता या अश्लिता की है तो दो दिन पूर्व की एक वाक्या बताता हूँ..दो दिन पूर्व मेरी मुलाकात भोजपुरी गीत-संगीत की दुनिया में बेहद लोकप्रिय एक गायक से हुई।(नाम न बताने के शर्त पे) इस मुलाकात और कई अन्य भोजपुरी भाषियों से बातचीत के दौरान मेरे ज़हन में एक ऐसी बात स्पष्ट हो गई जिसके बारे में कुछ धुंधला-सा आभास मुझे पहले से भी था।
लोकप्रिय भोजपुरी गीतों में या फिर फिल्मों में छाई अश्लीलता के बारे में मुझे कुछ अंदाज़ा तो था लेकिन इन गीतों या फिल्मों में अश्लीलता कितनी गहराई तक काबिज़ है यह मैं अब समझ पाया हूँ।
कई भारतीय प्रांतों के लोकगीतों में गालियों का प्रयोग आम रहा है। एक बार सुनने में शायद लगे कि गालियाँ होने के कारण ये लोकगीत सुनने में अश्लील लगते होंगे। लेकिन यह पूर्णत: सत्य नहीं है। लोकगीतों में गालियाँ चुहलबाज़ी जोड़ने के लिए प्रयोग की जाती हैं। जबकि आजकल के लोकप्रिय भोजपुरी गीत खालिस अश्लील होते हैं।
जिन भोजपुरी गायक का मैंने ज़िक्र किया है,उनसे मिलने और उनके बारे में जानने के बाद मेरे मन में उत्सुकता हुई कि उनके कुछ गीत सुने जाएँ। सो, मैंने यू-ट्यूब पर उनके गीतों को खोजा और सुना। कुछ गीत तो ऐसे सामने आए जिनके शब्द सुनकर मैं अवाक रह गया। इन शब्दों को द्विअर्थी बिल्कुल नहीं कहा जा सकता –इनका केवल और केवल एक ही अर्थ निकलता है और वह बहुत ही अश्लील है। मैं पशोपेश में हूँ कि इन शब्दों को यहाँ लिखूँ या नहीं। मुझे लगता है लिखना चाहिए ताकि मुझे पढ़ने वाले (पाठकों) को पता चल सके कि किस स्तर की अश्लीलता भोजपुरी के लोकप्रिय गीतों में बसी हुई है। लेकिन फिर लगता है कि इतने अश्लील गीत पढ़ कर मेरे बहुत से पाठक असहज महसूस करेंगे। इसे सुनने या ना सुनने के बारे में आप अपने विवेकानुसार निर्णय लेंगे.!
इन गीतों को लिखने वालों और गाने वालों से पूछा जाए तो वे कहते हैं कि हम तो वही परोसते हैं जो लोग सुनना चाहते हैं। एक तरह से देखा जाए तो पूरे का पूरा भोजपुरी भाषी समाज ही इस तर्क की लपेट में आ जाता है। क्या वाकई भोजपुरी बोलने-समझने वाले लोगों का इन अश्लील गीतों या फिर फिल्मों के बिना गुज़ारा नहीं है?
इस पर तर्क यह दिया जाता है कि इन गीतों का अधिकतर बाज़ार उन लोगों के कारण है जो दिन भर मेहनत मजदूरी करके शाम को कुछ मौज-मस्ती की इच्छा रखते हैं। यह सुनकर मेरे मन में आता है कि क्या केवल भोजपुरी भाषी ही मेहनत मजदूरी करते हैं? या कि केवल भोजपुरी भाषी लोग ही शाम को मौज-मस्ती करते हैं?
इन गीतों या फिल्मों को बनाने वाले लोगों द्वारा दिए जाने वाले ये सब तर्क आधारहीन हैं।
सच यह है संजय भइया कि भोजपुरी पर जान-बूझ कर ओढ़ी हुई अश्लीलता का कलंक लगा हुआ है। इसके चलते भोजपुरी जैसी बड़े पैमाने पर बोली जाने वाली भाषा को गंभीरता से नहीं लिया जाता। इसमें शक नहीं कि अश्लीलता बिकती है क्योंकि यह इंसान की एक नैसर्गिक ज़रूरत को पूरा करने में सहायक होती है। लेकिन क्या हमें इन पशु-सम लक्षणों से ऊपर उठ कर कलात्मक सुंदरता की खोज नहीं करनी चाहिए? अश्लीलता को गीत-संगीत में पिरो कर बेचने से केवल कुछ ही लोगों का भला हो रहा है (क्योंकि उन्हें पैसा मिल रहा है) लेकिन साथ ही एक भरा-पूरा समाज इस तरह की संस्कृति के चलते विकृत होता जा रहा है।
हम सभी जानते हैं कि टी.वी. स्क्रीन पर दिखने वाले लोग किस हद तक हमारी नई पीढ़ी की सोच को प्रभावित करते हैं। नौजवान टी.वी. पर दिखने वाले लोगों और उनके व्यवहार को ही आदर्श मान कर अपना लेते हैं। ऐसे में क्या इन छिछोरे वीडियोज़ में दिखने वाले सस्ते कलाकारों की सस्ती नौटंकी हमारी नई पीढ़ी को सस्ते माल में नहीं बदल देगी?
यह भोजपुरी बोलने वाले प्रबुद्ध लोगों का कर्तव्य बनता है कि वे अपनी भाषा पर लगे इस कलंक मिटाने के लिए प्रयास करें। भोजपुरी में राहुल सांकृत्यायन जैसे महापंडित ने साहित्य रचना की है –इसी भाषा को डॉ. राजेन्द्र प्रसाद और लालबहादुर शास्त्री जैसे विद्वानो ने प्रयोग किया है। आज इस भोजपुरी की ऐसी दुर्दशा देखकर मन दुखी होता है।
भोजपुरी की बेहतरी में अपना योगदान देने के लिए मैं यह निश्चय कर चुका हूँ कि कविता कोश में अच्छे भोजपुरी काव्य के लिए एक अलग से विभाग बनाया जाएगा –ताकि इस भाषा का सकारात्मक रूप भी लोगों के समक्ष आ सके।
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